उसकी हर वक़्त एक ही मुराद है,
मैं उसके करीब रहा करुं, उसके पास ही बैठा रहूं..
और मैं वो नहीं हूँ जो उसके हर मुरादों को पूरा करता हूँ,
मैं अक्सर अपने काम में ब्यस्त रहता हूँ,
और ये सोचता हूँ,
के मेरा काम ही है जो उसकी हर ख्वाहिसों को पूरा करता है.
वो अक्सर किसी बात से बिगड़ जाती है,
और रोते हुए कहती है, के मैं बदल गया हू।
कभी कभी बात आगे बढ़ जाती है,
बेतुकी सी अनचाही अनबन हो जाती है..
एक दो दिन के लिए दोनों बिछड़ जाते है,
मैं अपने रोष मैं रहता हूँ, मैं कुछ नहीं कहता हूँ,
क्यों के मैं एक आदमी हूँ!
पर वो आके मुझसे छोटी छोटी मुलाकाते करती है,
मेरा वैसे ही ख्याल रखती है,
आपने पानी पिया? खाना खाया?
बच्ची रो रही है, थोड़ा उसके साथ खेलदो,
मैं अपना काम ख़तम करके आती हूँ,
गुस्सा ना करो, मैं थोड़ा ज्यादा बोल दी ना?
आगे से ध्यान रखूंगी, मैं रात भर सो नहीं पायी,
आप दुखी मत हो, मैं अपने आपको संभाल लूंगीं.
और वो वैसे ही साधारण सी हो जाती है!!
क्यों के वो औरत है!
और ये कहावत याद करके फिर मैं अपने आप ही सेहम जाता हूँ,
की घर में बर्तन है तो आवाज़ आएगी ही!
पर कबतक?
मैं मानता हूँ,
के हाँ मैं बदल गया हूँ,
क्यों के, मेरी जिम्मेदारी बढ़ गयी हे।
मेरी जरूरते बढ़ गयी ।
पर किसके लिए…?
Raah chalte ek saksh ne kuch iss tarah kaha
Raah chalte ek saksh ne kuch iss tarah kaha, ke aaj ke zindegi me; main daroo ko haath na lagaoonga, yeh baat meri jehan me baith gayi, aur sochne ko mazboor kargayi, ke ek saraabi ke liye, aaj ki aur kal ki zondegi main antar hi kya hai! baat aisi hai, ke wo...